This one is my 3rd and last poem from Old diary.
Dedicated to my Nana Ji on his death anniversary.
वो फिर लौट कर न आते हैं ।
फिजाओं में गूंज़ती उनकी आवाज़ ,
आते न वो बस आती है याद ।
न जाने क्यूँ वो रूठ जाते हैं ,
सारे रिश्ते नाते उनसे टूट जाते हैं ।
वो सबको छोड़ जाते हैं ,
सारे बंधन तोड़ जाते हैं ।
कभी कभी मैं कुछ सोंचता हूँ ,
मन ही मन में खुद से पूंछता हूँ ।
जाना ही है जब इक दिन ,
क्यूँ इतने रिश्ते बंधन जोड़ जाते हैं ।
जब जोड़ते हैं बंधन फिर ,
क्यूँ इक दिन सबसे मुंह मोड़ जाते हैं ।
अब चाहे हो दिवाली या की हो ईद ,
उनके आने की नहीं है कोई उम्मीद ।
फिर भी कभी कभी होता है एहसास ,
जैसे हों वो कहीं आस पास ।
जब ख़ुशी में और कभी गम में ,
आहट सी होती है दरवाजे पर ,
और हवा का झोंका गुजरता है सर को छू कर ।
तो होता है एहसास ,
जैसे वो दे रहे हों आशीर्वाद ।
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