Tuesday, September 21, 2010

सपने...

Below lines from my Old diary.. 2nd of the 3 poems which i have written way back in 2005.

कुछ ख्वाब देखे थे मैंने बचपन में ,
खुद से बातें करते हुए दर्पण में ।
चाहा था मैंने बुलंदियों तक ही जाना,
कुछ ऐसा करना जिसे देखे सारा जमाना ।
लेकिन वे सपने पूरे न हो सके,
हम बुलंदियों को हमेशा छू न सके ।
फिर भी मुझे कुछ गम नहीं है,
जो मैंने पाया वो कम नहीं है ।
चाहा था मैंने चाँद तारों तक जाना,
पर अभी बादलों पर ही है ठिकाना ।
चाँद और तारे ज़रूर रौशनी बिखेरते हैं,
पर बादल भी नन्हीं बूंदों से मुस्कुराते हैं ।
देखकर बादल को मोर नाचते हैं,
बच्चे झूम झूम जाते हैं ।
ख़ुशी है इस बात की, ऊंचाई मुझे मिली है इतनी,
की अभी और ऊपर की ओर निहार सकता हूँ
और धरती पर खुशियाँ बिखार सकता हूँ
हूँ इतनी ऊंचाई पर की धरती लगती है अभी भी अपनी ।

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