Friday, November 5, 2010

बंधन..


This one is my 3rd and last poem from Old diary.

Dedicated to my Nana Ji on his death anniversary.

कुछ लोग जाने कहाँ चले जाते हैं ,
वो फिर लौट कर न आते हैं ।

फिजाओं में गूंज़ती उनकी आवाज़ ,
आते न वो बस आती है याद ।


न जाने क्यूँ वो रूठ जाते हैं ,
सारे रिश्ते नाते उनसे टूट जाते हैं ।

वो सबको छोड़ जाते हैं ,
सारे बंधन तोड़ जाते हैं ।

कभी कभी मैं कुछ सोंचता हूँ ,
मन ही मन में खुद से पूंछता हूँ ।

जाना ही है जब इक दिन ,
क्यूँ इतने रिश्ते बंधन जोड़ जाते हैं ।

जब जोड़ते हैं बंधन फिर ,
क्यूँ इक दिन सबसे मुंह मोड़ जाते हैं ।

अब चाहे हो दिवाली या की हो ईद ,
उनके आने की नहीं है कोई उम्मीद ।

फिर भी कभी कभी होता है एहसास ,
जैसे हों वो कहीं आस पास ।

जब ख़ुशी में और कभी गम में ,
आहट सी होती है दरवाजे पर ,
और हवा का झोंका गुजरता है सर को छू कर ।

तो होता है एहसास ,
जैसे वो दे रहे हों आशीर्वाद ।

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